‘तेलुगु हमारी मां है, तो हिंदी हमारी मौसी।’ आंध्र प्रदेश के डिप्टी सीएम और जन सेना प्रमुख पवन कल्याण ने हैदराबाद में राजभाषा विभाग के ‘दक्षिण संवाद’ कार्यक्रम के स्वर्ण जयंती मंच से यह बात कह दी, तो बहस फिर भड़क उठी। उन्होंने कहा—देशभर में संवाद की जरूरत हो तो हिंदी सहूलियत देती है, इसे सीखना कमजोरी नहीं, ताकत है। सोशल मीडिया पर तुरंत प्रतिक्रिया आई। अभिनेता प्रकाश राज ने वीडियो शेयर कर पूछा—‘किस कीमत पर आपने खुद को बेचा?’ यही तनातनी 2025 में दूसरी बार दिखी है।
विवाद की वजह क्या है
पवन कल्याण की दलील सीधी है—जैसे हम विदेशी भाषाएं सीखते हैं, वैसे ही हिंदी सीखने में हिचक क्यों? उनका कहना है कि राज्य की सीमा पार करते ही एक साझा भाषा की जरूरत पड़ती है, और वहां हिंदी काम आती है। वह इसे ‘मौसी’ कहकर यह संकेत देते हैं कि यह निकट की है, पर ‘मां’ यानी मातृभाषा का स्थान नहीं लेती। साथ में उन्होंने साफ किया—वे हिंदी को अनिवार्य बनाने के खिलाफ हैं, पर स्वेच्छा से सीखने के पक्ष में।
इस बयान का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक तर्क पर टिका था। उन्होंने याद दिलाया कि हिंदी फिल्म उद्योग और उत्तर भारतीय बाजार, दक्षिण की फिल्मों के लिए कमाई का बड़ा जरिया बन चुके हैं। ‘बाहुबली 2’ का हिंदी संस्करण अकेले 500 करोड़ से ज्यादा बटोर चुका, ‘केजीएफ 2’ का हिंदी कलेक्शन 400 करोड़ के आसपास रहा। ‘पुष्पा’ और ‘कांतारा’ के हिंदी वर्जन भी बॉक्स ऑफिस पर टिके। पवन का संदेश—भाषा कौशल नौकरी और मनोरंजन उद्योग दोनों में मौके बढ़ाता है।
आलोचकों का तर्क अलग है। उनका कहना है—जब भी कोई सियासी शख्स हिंदी को ‘एकता की भाषा’ कहता है, दक्षिण में इसे ‘हिंदी थोपने’ की आशंका से जोड़ा जाता है। तमिलनाडु का 1965 का आंदोलन इस स्मृति को और गहरा करता है। कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मलयालम—ये सिर्फ भाषाएं नहीं, पहचान हैं। इसलिए ‘सीखना अच्छा है’ और ‘सीखना जरूरी है’—इन दोनों वाक्यों का फर्क यहां बहुत मायने रखता है।
प्रकाश राज की प्रतिक्रिया इसी चिंता से जुड़ी दिखी। मई 2025 में भी जब पवन कल्याण ने तमिलनाडु नेताओं के हिंदी विरोध पर सवाल उठाए थे, तब प्रकाश राज ने उन्हें नसीहत दी थी—दूसरों पर हिंदी मत थोपिए, आत्मसम्मान और संस्कृति का सवाल है। इस बार भी उनका लहजा तीखा रहा।
मौजूदा बहस का एक सामाजिक पहलू भी है। दक्षिणी राज्यों में शिक्षा, प्रशासन, और रोजमर्रा के जीवन में स्थानीय भाषाएं ही केंद्र में हैं। लेकिन नौकरी, पर्यटन, और प्रवासन की वजह से बहुभाषिता बढ़ रही है। बेंगलुरु या हैदराबाद जैसी शहरों में अलग-अलग राज्यों से आए लोगों के बीच पुल-भाषाएं बननी ही हैं—कई जगह यह काम अंग्रेजी करती है, कई जगह हिंदी। मुद्दा यही है कि कौन-सी भाषा ‘स्वाभाविक’ पुल बने और कौन-सी ‘नीति’ के दम पर।
मनोरंजन और डिजिटल दुनिया ने इस बात को और बदल दिया है। ओटीटी प्लेटफॉर्म अब एक ही कंटेंट को कई भारतीय भाषाओं में डब करते हैं। मोबाइल पर रील, मीम और गाने—सब जगह भाषा की दीवारें पतली हो रही हैं। फिर भी स्कूलों की कक्षाओं, सरकारी भर्ती और प्रशासनिक कामकाज में कौन-सी भाषा चले—यह सियासी फैसला है, और यहीं टकराव बढ़ता है।
कानूनी और नीतिगत संदर्भ
कानून क्या कहता है? संविधान का अनुच्छेद 343 देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की आधिकारिक भाषा मानता है। अंग्रेजी भी आधिकारिक कामकाज में साथ चलती है, और यह व्यवस्था अब लंबे समय से जारी है। देश में ‘राष्ट्रीय भाषा’ जैसी कोई संवैधानिक पदवी नहीं है—यह बात अदालतें और विशेषज्ञ बार-बार साफ कर चुके हैं। अनुच्छेद 351 हिंदी के विकास के निर्देश देता है, पर यह राज्यों की भाषाई स्वायत्तता पर ऊपर नहीं बैठता।
भारत की आठवीं अनुसूची फिलहाल 22 भाषाओं को सूचीबद्ध करती है—इनमें असमीया, बांग्ला, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संताली, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दू और डोगरी शामिल हैं। मतलब—बहुभाषी भारत, बहुभाषी संविधान।
शिक्षा नीति की तस्वीर भी बड़ी साफ है। नई शिक्षा नीति 2020 ‘तीन-भाषा फार्मूला’ को लचीले ढंग से अपनाती है। इसमें हिंदी को अनिवार्य नहीं किया गया। राज्यों और छात्रों को यह छूट है कि वे दो भारतीय भाषाएं और एक विदेशी भाषा चुन सकें। पवन कल्याण ने इसी लचीलेपन का हवाला देते हुए कहा—वह मजबूरी के खिलाफ हैं, लेकिन सीखने के हक और फायदे के पक्ष में।
राजनीतिक परतें भी कम दिलचस्प नहीं हैं। यह कार्यक्रम गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग का था। उपसभापति हरिवंश ने मंच से कहा—हिंदी को बढ़ावा देने की प्रेरणा कई बार उन नेताओं से आई, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है। ऐसे बयान एक संकेत देते हैं कि केंद्र की भाषा-नीति पर दक्षिण की नजरें टिकी हुई हैं, और वहां के नेता हर शब्द को तौलकर सुनते हैं।
आंध्र प्रदेश में पवन कल्याण इस समय सत्ता का हिस्सा हैं। ऐसे में उनका हर सार्वजनिक वक्तव्य सिर्फ सांस्कृतिक नहीं, राजनीतिक संदेश भी बन जाता है—दिल्ली तक सुना जाता है और चेन्नई-बेंगलुरु-हैदराबाद तक तौला जाता है। दक्षिण के कई दल—चाहे डीएमके हो या कन्नड़-तेलुगु क्षेत्र के क्षेत्रीय दल—भाषा सवाल पर अपने वोटरों के साथ सीधी लाइन में रहते हैं। इसलिए ‘हिंदी सीखें’ कहना भी यहां अलग राजनीतिक अर्थ ले लेता है।
इस बहस की एक जमीनी परत है—कामकाजी जिंदगी। कॉल सेंटर, पर्यटन, ई-कॉमर्स डिलीवरी, इंटर-स्टेट लॉजिस्टिक्स—इनमें काम करने वालों के लिए बहुभाषा कौशल एक व्यावहारिक जरूरत है। कई युवा अंग्रेजी के साथ हिंदी या किसी दूसरी भारतीय भाषा सीखकर अपनी कमाई बढ़ाते हैं। सरकारें यहां दो बातें कर सकती हैं—एक, मातृभाषा में उच्च गुणवत्ता की स्कूली शिक्षा; दो, नौकरी के हिसाब से अतिरिक्त भाषा सीखने की खुली राह। लड़ाई तब शुरू होती है जब ‘खुली राह’ को ‘एक ही राह’ बना दिया जाए।
भाषा और संस्कृति के तर्क अलग-अलग ध्रुवों पर नहीं हैं। एक ओर—स्थानीय भाषा में प्रशासन से जवाबदेही, शिक्षा में सीखने के बेहतर नतीजे और पहचान की सुरक्षा मिलती है। दूसरी ओर—एक साझा भाषा से राज्यों के बीच कारोबार और संवाद आसान होता है। भारत की मुश्किल यही है कि उसे दोनों लक्ष्यों को साथ लेकर चलना है—और संविधान इसी संतुलन की कोशिश करता है।
अब बात आती है संचार की नई तकनीकों की। अनुवाद टूल और रियल-टाइम सबटाइटल आज रोजमर्रा के फोन में हैं। वे भाषाई दीवारें कम कर रहे हैं, लेकिन सरकारी नोटिंग, अदालतों, परीक्षाओं और स्कूलों का ढांचा अभी भी भाषा-चयन पर ठहरता है। यहां पारदर्शी नियम, बहुभाषी सामग्री और राज्य-स्तर पर फैसला लेने की आजादी—ये तीनों चीजें तनाव घटाती हैं।
दक्षिण की राजनीति इस मुद्दे पर बार-बार तेज क्यों होती है, यह समझना मुश्किल नहीं। 1965 की याद, क्षेत्रीय दलों का उभार, और मातृभाषा में शिक्षा का मजबूत ढांचा—ये सब लोगों को सतर्क रखते हैं। जब भी दिल्ली से ‘हिंदी’ का संदेश आता है, वहां यह सवाल उठता है—क्या यह सुझाव है या आदेश? पवन कल्याण ने ‘अनिवार्य नहीं’ कहकर यही संदेह कम करने की कोशिश की है, पर शब्दों के चुनाव—‘मां’ और ‘मौसी’—ने बहस का ताप बढ़ा दिया।
फिल्मों का उदाहरण पवन कल्याण के आर्थिक तर्क को वजन देता है। उत्तर भारतीय बाजार अब दक्षिण की फिल्मों के लिए बन चुका है; इसने कलाकारों, तकनीशियनों और वितरकों के लिए नए मौके खोले हैं। लेकिन यह भी सच है कि उसी बाजार ने स्थानीय भाषाओं की ताकत दुनिया को दिखाई है—‘बाहुबली’, ‘केजीएफ’, ‘कांतारा’, ‘पुष्पा’—इनकी असली धड़कन अपनी मातृभाषा से ही आई। सबक यही है—स्थानीय भाषा जड़ है, साझा भाषा शाखा है।
नीति बनाने वालों के लिए आगे का रास्ता मुश्किल नहीं, पर धैर्य मांगता है। राज्यों को यह भरोसा चाहिए कि केंद्र भाषाई विविधता को बराबर महत्व देता है। केंद्र को यह भरोसा चाहिए कि राज्यों के बच्चे एक-दो अतिरिक्त भाषाएं सीखकर देश के किसी भी हिस्से में काम कर सकेंगे। स्कूलों में मातृभाषा-आधारित शिक्षा, साथ में वैकल्पिक दूसरी-तीसरी भाषा, और सरकारी परीक्षाओं में बहुभाषी विकल्प—ये कदम तनाव कम करते हैं।
पवन कल्याण का मौजूदा बयान दो साफ संदेश छोड़ता है—एक, वे हिंदी के विरोधी नहीं, जबरदस्ती के विरोधी हैं; दो, दक्षिण की ज़मीन पर भाषा का सवाल सिर्फ संचार का नहीं, सम्मान का भी है। यही कारण है कि एक वाक्य—‘तेलुगु मां है, हिंदी मौसी’—राजनीति, संस्कृति और नीति—तीनों में एक साथ गूंज रहा है।
यह बहस जल्दी थमने वाली नहीं। जैसे-जैसे केंद्र-राज्य रिश्तों में भाषा की भूमिका पर नए फैसले होंगे, वैसे-वैसे ऐसे बयान और प्रतिक्रियाएं सामने आएंगी। फिलहाल, मंच से उठे एक मुहावरे ने यह याद दिला दिया है कि भारत में भाषा कोई ‘विषय’ नहीं—यह लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी, कमाई और आत्मसम्मान का हिस्सा है।
- संविधान: आधिकारिक भाषा हिंदी, ‘राष्ट्रीय भाषा’ का दर्जा नहीं।
- नीति: एनईपी 2020—हिंदी अनिवार्य नहीं, तीन-भाषा फार्मूला लचीला।
- राजनीति: दक्षिण में ‘हिंदी थोपने’ का डर, क्षेत्रीय पहचान का सवाल।
- अर्थशास्त्र: डबिंग और नौकरी बाजार में बहुभाषिता से मौके बढ़ते हैं।